“इसलिए हे भाइयो, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरणीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, अर्थात् जो भी सद्गुण और प्रशंसा की बातें हैं उन पर ध्यान लगाया करो।” फिलिप्पियों 4:8
हम सभी परमेश्वर की शान्ति को जानने और उसकी उपस्थिति को महसूस करने के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन परमेश्वर की शान्ति, जो हमारे हृदय और मन की रक्षा करती है (फिलिप्पियों 4:7), अपने आप नहीं आती।
यह स्वाभाविक रूप से नहीं आती। परमेश्वर की स्थाई शान्ति का अनुभव तभी होता है, जब हम अपने मनों को उन बातों पर केन्द्रित करते हैं जो उसे प्रसन्न करती हैं। इसलिए को शान्ति जानने के लिए सबसे पहले यह सवाल करें, “मुझे किस प्रकार से सोचना चाहिए?”
इस पद में पौलुस का उत्तर दिया गया है। वह हमें प्रोत्साहित करता है कि हम अपने विचारों के ढांचे को उन बातों पर आधारित करें जो श्रेष्ठ और सराहनीय हैं। इसी उद्देश्य से, वह हमें मसीही जीवन में विचारों के छः मूलभूत सद्गुणों की एक सूची प्रदान करता है।
पहला है सत्य। सबसे पहले हमें सत्य का कमरबन्द कसना है, ताकि हम परमेश्वर के अन्य अस्त्रों-शस्त्रों से लाभ उठा सकें (इफिसियों 6:14)। इसलिए यहाँ सत्य को प्रथम स्थान दिया गया है, जो मसीह में वस्तुनिष्ठ रूप से पाया जाता है और जिसे तब अनुभव किया जाता है, जब हम स्वयं को और दूसरों को सुसमाचार का प्रचार करते हैं।
दूसरा, पौलुस हमें “जो जो बातें आदरणीय हैं” की ओर निर्देशित करता है—या “उत्तम,” जैसा कि कुछ अनुवादों में है। हमें अपने विचारों को वैभव से भरपूर या प्रेरणादायक बातों पर केन्द्रित करना है, जो अनैतिक और सांसारिक बातों के उलट है। विश्वासियों के रूप में, हमें अपने मनों को तुच्छ मनोरंजन या उसके समान महत्त्वहीन बातों से नहीं भरना है, जिनके पीछे हमारा गैर-धार्मिक संसार पड़ा हुआ है। इसके बजाय, हमें ऐसी बातों पर मन लगाना है जो हमारी आत्मा को ऊपर की ओर, परमेश्वर और उनके महान कार्यों की ओर ले जाती हैं। तीसरे और चौथे स्थान पर, पौलुस हमें उचित और पवित्र बातों के आधार पर निर्णय लेने के लिए कहता है, न कि उन पर जो सुविधाजनक या सन्तोषजनक हो। यही वह सोच थी जिसने यूसुफ को दाऊद से उस समय अलग किया, जब उन्होंने एक जैसी परिस्थिति का सामना किया। जब पोतीपर की पत्नी यूसुफ के पीछे पड़ गई थी, तो उसने सही बात के आधार पर निर्णय लिया, न कि उस बात के आधार पर जो आसान या तात्कालिक रूप से सन्तोषजनक थी (उत्पत्ति 39:6-12)।
दूसरी ओर, दाऊद ने अपनी भावनाओं का अनुसरण किया और बतशेबा के साथ सोने और उसके पति की हत्या करके बड़ा अन्याय किया (2 शमूएल 11)। उद्धार प्राप्त कर लेने का अर्थ यह नहीं है कि अब हम अपने आप ही अधर्म से बच जाएँगे, जिसका आरम्भ मन में होता है और समापन पापी कार्यों में होता है। लेकिन उद्धार प्राप्त कर लेने के बाद जब हम उद्धार पाए हुए व्यक्ति के रूप में सोचते हैं, तब हम अधर्म से बचे रहते हैं। पाँचवें और छठे स्थान पर, “जो जो बातें सुहावनी हैं” और “जो जो बातें मनभावनी हैं” हमें उन पर ध्यान करना चाहिए—या जैसा कि किंग जेम्स संस्करण में है, उन पर जो “अच्छी प्रतिष्ठा” वाली बातें हैं। जब हम इस तरह से सोचते हैं, तो हम ऐसी बातों को सुनेंगे जो लोगों को बढ़ाती हैं, न कि ऐसी बातों को जो निन्दा करती हैं, निराश करती हैं, और नष्ट करती हैं। यह मानसिकता भाईचारे के प्रेम को बढ़ावा देती है और परमेश्वर के अनुग्रह के साथ चलती है जैसे वह हमारे जीवन में कार्य करता है।
पौलुस द्वारा दिए गए ढांचे के अनुसार अपने विचारों को ढालें और इसके साथ प्रार्थना अवश्य करें (फिलिप्पियों 4:6-8), तब आपके पास चिन्ता के लिए बहुत कम स्थान होगा, अर्थात उस मानसिकता के लिए जो शान्ति को घटाने वाली और आनन्द को नष्ट करने वाली होती है और अक्सर हमारे जीवन में चुपचाप घुस आती है। इसके बजाय, अपने मन को परमेश्वर के विचारों के अनुरूप प्रशिक्षित करें, और तब आप उसकी शान्ति और उपस्थिति का अधिक अनुभव कर पाएँगे।
भजन 119:97-104
पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: 1 शमूएल 7–9; इफिसियों 5:1-16 ◊