“नाओमी ने उससे कहा, ‘हे मेरी बेटी, क्या मैं तेरे लिए ठाँव न ढूँढ़ूँ कि तेरा भला हो? अब जिसकी दासियों के पास तू थी, क्या वह बोअज़ हमारा कुटुम्बी नहीं है? वह तो आज रात को खलिहान में जौ फटकेगा। तू स्नान कर तेल लगा, और अच्छे वस्त्र पहिनकर खलिहान को जा।’” रूत 3:1-3
परमेश्वर सम्प्रभु है, इसलिए हम साहसिक निर्णय ले सकते हैं।
जैसे कोई भी भला व्यक्ति करता है, वैसे ही नाओमी भी चाहती थी कि उसकी विधवा बहू रूत का जीवन सुरक्षित और स्थिर हो। इसलिए उसने रूत से आग्रह किया कि वह बोअज़ के पास जाए और उससे विवाह करके जीवनभर की सुरक्षा की याचना करे।
निस्सन्देह, हमें इस पुराने नियम की कथा में आज के समय के विचारों को ज़रूरत से ज़्यादा नहीं डालना चाहिए, क्योंकि उस समय की अपनी सांस्कृतिक परम्पराएँ थीं। परन्तु यह भी याद रखना ज़रूरी है कि यह वास्तविक लोगों का वास्तविक जीवन था, जो एक वास्तविक मध्य-पूर्वी गाँव में एक जीवित परमेश्वर से मिल रहे थे और अपने जीवन को पूरी तरह से उसे समर्पित कर रहे थे।
इसलिए इसमें कुछ शाश्वत सत्य हैं, जिन्हें हम सीख सकते हैं। मुख्य रूप से, हम सीख सकते हैं कि हालाँकि परमेश्वर की सर्वशक्तिमान योजना हमारे जीवनों पर शासन करती है, तौभी वह हमारे निर्णय लेने की स्वतन्त्रता को सीमित नहीं करती। परमेश्वर की प्रभुता न तो नाओमी की सोच को रोकती है, न ही रूत की प्रतिक्रिया को। प्रभु उन सभी बातों पर प्रभुत्व रखता है, लेकिन वह उनके चुनावों को जबरन प्रभावित नहीं कर रहा था।
रूत की कहानी यह भी याद दिलाती है कि भले ही गलतियाँ हमारे जीवन की दिशा को बदल दें, तौभी परमेश्वर उन्हें हमारे अन्तिम भले और अपनी महिमा के लिए छुटकारे में बदल देता है। नाओमी के पति को अपने परिवार को प्रतिज्ञा के देश से परमेश्वर की प्रजा के शत्रु देश मोआब में नहीं ले जाना चाहिए था; और उसके बेटों को मोआबी स्त्रियों से विवाह नहीं करना चाहिए था, क्योंकि परमेश्वर के व्यवस्था-विधान के अनुसार अन्य धर्मों के लोगों से विवाह करने की मनाही थी। फिर भी इन गलत चुनावों ने रूत को नाओमी तक पहुँचाया, परमेश्वर तक पहुँचाया, और यीशु के पूर्वज के रूप में उसे उद्धार की वंशावली में शामिल कर दिया (मत्ती 1:1-6)।
इस प्रकार का छुटकारा जानबूझकर विद्रोह करने का बहाना नहीं है, बल्कि यह निरन्तर आश्वासन है कि हमें अपने अतीत की गलतियों के कारण निराश होने की आवश्यकता नहीं है। उसी प्रकार, परमेश्वर की प्रभुता—जो पहले उसके पुत्र को संसार में लाकर और फिर अपने लोगों को उसमें विश्वास करने के लिए बुलाकर उसके छुटकारे की योजना को बुनती है—तब हमारे लिए निरन्तर आश्वासन बनी रहती है, जब हम निर्णयों का सामना करते हैं और इस या उस मार्ग को चुनने का विचार करते हैं।
हम विश्वास से भरे कार्यों के माध्यम से परमेश्वर पर भरोसा करते हैं। नाओमी बस अपने घर में बैठकर परमेश्वर के चमत्कार की प्रतीक्षा नहीं करती रही और यह नहीं कहती रही, जो होगा देखा जाएगा। नहीं—उसने कार्य किया, उसने रूत को आगे बढ़ने और अगला कदम उठाने को कहा, जो कि परमेश्वर की योजना का हिस्सा लगता था। परमेश्वर की प्रभुता पर विश्वास का अर्थ यह नहीं कि हम निष्क्रिय होकर बस योजना को घटित होते हुए देखें और Que será, será गाते रहें—अर्थात जो होना है, वह होकर रहना है—क्योंकि “भविष्य हमारे हाथों में नहीं है”[1]
इसके बजाय, हमें यीशु के शब्दों को दोहराना चाहिए: “मेरी नहीं परन्तु तेरी ही इच्छा पूरी हो” (लूका 22:42)। इस प्रार्थना को करने के बाद यीशु ने इसे अपने जीवन में पूरी तरह आज्ञाकारिता से जीया, यहाँ तक कि मृत्यु तक। जीवन का मार्ग चाहे जितना भी टेढ़ा-मेढ़ा हो, परमेश्वर का वचन यह प्रतिज्ञा करता है: “कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, उनके लिए सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती हैं; अर्थात् उन्हीं के लिए जो उसकी इच्छा के अनुसार बुलाए हुए हैं” (रोमियों 8:28)। इस प्रतिज्ञा में ढाढ़स रखें।
क्या आप किसी निर्णय का सामना कर रहे हैं? क्या आप सोच रहे हैं कि कौन सा मार्ग चुनें? परमेश्वर सम्प्रभु है और वह उद्धार करता है। आप जो भी निर्णय लें, परमेश्वर के प्रावधान की सान्त्वना के भीतर साहसपूर्वक और स्वतन्त्र रूप से जीवन जीएँ।
प्रेरितों 16:6-15
◊ पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: 2 शमूएल 14–15; 1 यूहन्ना 4
[1] रेय इवैंस, “क्यू सेरा, सेरा” (1956).