3 दिसम्बर : परमेश्वर के अधिकार को चुनौती देना

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3 दिसम्बर : परमेश्वर के अधिकार को चुनौती देना
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“वह अपने घर आया और उसके अपनों ने उसे ग्रहण नहीं किया।” यूहन्ना 1:11

बहुत से अभिनेता यह सोचते हैं कि वे हैमलेट की भूमिका निभाने के योग्य हैं। परन्तु अनेक बार, वे वास्तव में उस योग्य नहीं होते। उनमें वह क्षमता और अनुभव नहीं होता, जो इस गहन भूमिका के लिए अपेक्षित है—हालाँकि यह तथ्य उन्हें इसका प्रयास करने से रोकता नहीं है!

इसी प्रकार, हर पुरुष और स्त्री अपने जीवन में किसी न किसी समय परमेश्वर के अधिकार को चुनौती देने के प्रलोभन में पड़ते हैं और यह भ्रम पाल लेते हैं कि वे वह भूमिका निभा सकते हैं जो केवल वही निभा सकता है। अक्सर हम अपनी परिस्थितियों में उसकी दिव्य योजना और नियन्त्रण पर भरोसा करने में असफल होते हैं। इसके स्थान पर, हम उसके सम्पूर्ण प्रभुत्व पर प्रश्न उठाते हैं। हम उस स्थान को छीनने का प्रयास करते हैं, जो केवल सृष्टिकर्ता परमेश्वर का है।

परमेश्वर के अधिकार का विरोध कोई नई बात नहीं है। जब यीशु पुराने नियम की भविष्यवाणियों की पूर्ति के रूप में इस पृथ्वी पर आया, तब भी अपने सेवा-काल में वह अपने ही लोगों द्वारा अस्वीकार किया गया। इस्राएल मसीह की प्रतीक्षा कर रहा था—परन्तु जब वह आया, तब उन्होंने उसके अधिकार पर प्रश्न उठाया और उसकी पहचान को अस्वीकार कर दिया। वे भविष्यवाणियों को जानते थे, परन्तु उनकी पूर्ति को नहीं पहचान सके।

यहूदी धार्मिक अगुवों और अन्यजाति शासकों द्वारा क्रूस पर मारे जाने से कुछ दिन पहले यीशु ने दुष्ट किसानों का दृष्टान्त कहा, जिन्होंने दाख-वाटिका के स्वामी के पुत्र को अस्वीकार किया और उसे मार डाला। प्रभु ने इस दृष्टान्त के द्वारा मुख्य याजकों, शास्त्रियों और अगुवों के आत्मिक अन्धेपन को उजागर किया, जो उससे उसके कार्यों का हिसाब मांग रहे थे (मरकुस 12:1–12)। वे समझ गए थे कि यीशु स्वयं को परमेश्वर का पुत्र कह रहा था। परन्तु जब यीशु ने स्पष्ट रूप से उन्हें चेतावनी दी कि वे उन किसानों जैसे हैं, जिन्होंने स्वामी के पुत्र को मार डाला, तब दुख की बात है कि वे उसी क्षण उसे पकड़ने का षड्यन्त्र रचने लगे!

हमें यह सोचने का प्रलोभन हो सकता है: “वे धार्मिक अगुवे कितने घमण्डी थे, जो सृष्टि के राजा के सामने खड़े होकर उसके अधिकार को चुनौती दे रहे थे!” परन्तु सच तो यह है कि हम भी पहले उनसे भिन्न नहीं थे। अपने पापपूर्ण स्वभाव में, हम भी उस पुत्र को ग्रहण नहीं करना चाहते थे जिसे परमेश्वर ने भेजा था। हम अन्धकार में रहना पसन्द करते थे। सच कहें तो, वह अन्धकार हमें भाता था!

यूहन्ना इस सत्य को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है जब वह कहता है, “ज्योति जगत में आई है, और मनुष्यों ने अन्धकार को ज्योति से अधिक प्रिय जाना क्योंकि उनके काम बुरे थे” (यूहन्ना 3:19)। मनुष्य स्वाभाविक रूप से यह नहीं करते कि वे बैठकर सुसमाचार की ज्योति को अपने हृदय में आने की प्रतीक्षा करें। परन्तु अपने अनुग्रह में, परमेश्वर अन्धों की आँखें खोलता है, जिससे वे उसके पुत्र की पहचान को देखें, उस पर विश्वास करें और उसकी आराधना करें।

यही कारण है कि बाइबल हमेशा “आज” की बात करती है। मसीह के लिए जीवन जीने का कोई दिन आज से उत्तम नहीं है। हम विश्वासियों को भी, अपने मसीही जीवन में निरन्तर पश्चाताप और पुनर्स्थापना के लिए बुलाया गया है। हमें अपने जीवन में वह स्थान नहीं हथियाना है, जो केवल परमेश्वर के लिए आरक्षित है। जब हमारे हृदय अपने पाप के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, और जब हम उसके धीरज और दया को अनुभव करते हैं, तो उसकी भलाई हमें पवित्रता की ओर ले जाती है। और जब आप अपने जीवन के केन्द्र में परमेश्वर को रखते हैं—उसे वह भूमिका निभाने देते हैं जो केवल उसी के योग्य है—तब आप आनन्द और आत्मविश्वास के साथ उस भूमिका को पूरा कर सकते हैं जो उसने आपको दी है, अर्थात वह जीवन जीना जो उसने आपको उपहारस्वरूप दिया है, और उस उद्देश्य को पूरा करना जिसके लिए उसने आपको जीवन के “मंच” पर बुलाया—एक ऐसा जीवन जो उसे जानने, उससे प्रेम करने, और उसकी सेवा करने में व्यतीत होता है।

मरकुस 12:1-12

◊ पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: 2 इतिहास 30–31; लूका 10:25-42

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