29 मई : क्रूस का अर्थ

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29 मई : क्रूस का अर्थ
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“वरन् इसी समय उसकी धार्मिकता प्रगट हो कि जिससे वह आप ही धर्मी ठहरे, और जो यीशु पर विश्‍वास करे उसका भी धर्मी ठहराने वाला हो।” रोमियों 3:26

यदि मसीह की क्रूस पर मृत्यु न होती, तो कोई सुसमाचार नहीं होता। यीशु के बलिदान के माध्यम से ही यह सम्भव हुआ है कि परमेश्वर पिता ने पापी मनुष्यों को अपने साथ संगति में आने का अवसर प्रदान किया है। यदि हम परमेश्वर को जानना चाहते हैं, तो हमें उससे प्रभु यीशु मसीह में मिलना होगा। केवल क्रूस के माध्यम से ही परमेश्वर पाप को सजा देने में न्याय और उसकी क्षमा प्रदान करने में दया दिखाता है, जिससे आप और मेरे जैसे लोग स्वर्ग की पवित्रता को भंग किए बिना उसमें प्रवेश कर सकें। क्रूस परमेश्वर का उत्तर है न केवल पाप के खिलाफ, बल्कि पाप पर उसके पवित्र क्रोध के खिलाफ भी। जो लोग विश्वास नहीं करते, उनके लिए परमेश्वर का यह उत्तर बिल्कुल मूर्खतापूर्ण लगता है, लेकिन जो विश्वास करते हैं वे क्रूस को परमेश्वर की शक्ति के रूप में समझते हैं (1 कुरिन्थियों 1:18)।

यदि परमेश्वर पाप को नजरअंदाज कर देता या उस पर क्रोधित होना बन्द कर देता, तो वह परमेश्वर नहीं रह सकता था; क्योंकि परमेश्वर का न्याय उसके स्वभाव में निहित है, और न्याय माँग करता है कि पाप को सजा मिले। वह बुराई पर आँखें नहीं मूँद सकता। जब हम दूसरों के हाथों पीड़ित होते हैं, तो यह हमारे लिए शुभ समाचार है; यह हमें दीन करने वाला समाचार भी है क्योंकि हम स्वयं भी पापी हैं।

मसीह का क्रूस वह तरीका है जिसके द्वारा परमेश्वर न्यायी रह सकता है और उन पापियों को निर्दोष घोषित कर सकता है जिन्होंने इस क्रूसित उद्धारकर्ता पर विश्वास किया है। पाप से निपटने के लिए परमेश्वर ने अपनी कृपा में अपने पुत्र को भेजा, ताकि वह उस सजा को उठाए जो पापियों को मिलनी चाहिए। हमारा उद्धार इस कारण आया है, क्योंकि मसीह ने हमारा स्थान ले लिया। इस पर विचार करने के लिए रुकिए। यह चौंकाने वाला तथ्य है, पहले इसलिए कि परमेश्वर ने यह योजना बनाई, और दूसरा इसलिए कि उसने इसे पूरा किया। क्रूस पर विचार करते समय हमेशा हमें विस्मित और विनम्र स्तुति की ओर प्रेरित होना चाहिए।

मसीह के द्वारा हमारा स्थान लेना ही वह कारण है कि सभी पुराने नियम के बलिदान यीशु की ओर इशारा करते हैं। मसीह की मृत्यु में परमेश्वर का क्रोध, जो कि पाप के प्रति उसकी धार्मिक प्रवृत्ति है, सन्तुष्ट होता है, और हमारे लिए उसका प्रेम और अधिक उजागर होता है। जो लोग यीशु पर विश्वास कर लेते हैं, उन्हें अब उसके क्रोध का सामना करने की आवश्यकता नहीं है; इसके बजाय हमें क्रूस पर प्रकट हुए प्रेम पर आनन्दित होने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। सचमुच, सुसमाचार के सभी आशीर्वाद और लाभ उसके कारण हमारे हो जाते हैं, जो यीशु ने अपनी जीवन, मृत्यु और पुनरुत्थान में पूरा किया।

यीशु इसलिए आया कि पाप पर आने वाले परमेश्वर के सारे दण्ड को अपने ऊपर उठा ले। जब मसीह ने हमारा स्थान लिया, तो उसने हमारे ऊपर आने वाले अन्तिम न्याय को क्रूस पर लाकर हमें परमेश्वर के सिंहासन के सामने खड़ा किया, ताकि हम कह सकें, “मैं उसके साथ हूँ। उसने वह जीवन जीया जो मैं नहीं जी सकता था। वह मेरे स्थान पर मरा।”

अपने पहले पत्र में, यूहन्ना लिखता है कि कभी-कभी “हमारा मन हमें दोष देगा” (1 यूहन्ना 3:19)। यह एक ऐसा अनुभव है, जिसका सामना सभी लोग करते हैं। लेकिन मसीही लोगों को अपने विवेक को दागदार करने की जरूरत नहीं है, ताकि वे दोष लगाने वाली आवाज़ को शान्त कर सकें, और न ही उन्हें उस आवाज़ से दबकर रहने की आवश्यकता है। हम अपने पाप की गहराई के बारे में बहुत ईमानदार हो सकते हैं क्योंकि परमेश्वर का प्रेम उससे भी गहरा है। “अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं है” (रोमियों 8:1)। यीशु क्रूस पर हमसे मिलने के लिए आया। माफ किए गए पापी, क्या आप वहाँ जाकर उससे मिलेंगे और उसे देखकर हैरान होंगे?

लूका 15:11-32

◊ पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: 2 राजाओं 19–21; मत्ती 15:21-39

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