26 सितम्बर : तिनका और लट्ठा

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26 सितम्बर : तिनका और लट्ठा
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“जब तू अपनी ही आँख का लट्ठा नहीं देखता, तो अपने भाई से कैसे कह सकता है, ‘हे भाई; ठहर जा तेरी आँख से तिनके को निकाल दूँ’? हे कपटी, पहले अपनी आँख से लट्ठा निकाल, तब जो तिनका तेरे भाई की आँख में है, उसे भली भाँति देखकर निकाल सकेगा।” लूका 6:42

मुझे एक बार की घटना याद है—मैं एक परीक्षा में डेस्क पर बैठा था, जैसे ही मैंने प्रश्न-पत्र पलटा, तुरन्त ही मैं इधर-उधर देखने लगा कि क्या बाकी सभी लोग भी पहले प्रश्न को देखकर उतने ही परेशान हैं जितना मैं था। तभी शिक्षक की सख़्त आवाज़ आई: “दूसरों को मत देखो, खुद पर ध्यान दो!”

यीशु भी इन पदों में कुछ ऐसा ही कहता है—एक प्रभावशाली उपमा के ज़रिए वह अपने श्रोताओं को यह सिखाता है कि दूसरों के पापों की ओर अंगुली उठाने से पहले उन्हें अपने पापों से निपटना चाहिए। यीशु ने “तिनके” के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया है, वह आमतौर पर भूसे या लकड़ी के बहुत ही छोटे कणों के लिए इस्तेमाल होता है। इसके विपरीत, “लट्ठे” का भाव किसी घर की छत का भार-वहन करने वाली बड़ी लकड़ी से है। अगर मेरी आँख में ऐसा लट्ठा है, तो यह स्पष्ट है कि दूसरे की आँख का तिनका निकालने से पहले मेरी आँख के लट्ठे को निकाला जाना ज़रूरी है।

पतित मनुष्यों के रूप में हम अक्सर यह सोचने की प्रवृत्ति रखते हैं कि अपनी आत्मिक स्थिति का ध्यान रखने से पहले दूसरों की आत्मिक स्थिति को सुधारना हमारी प्राथमिक ज़िम्मेदारी है। लेकिन मसीह ने हमें इसलिए नहीं बुलाया है कि हम प्राथमिक और प्रारम्भिक रूप से पहले दूसरों की आँखों से तिनके निकालें। नहीं, वह कहता है कि पवित्रशास्त्र के प्रकाश में और उसके द्वारा ठहराए गए मापदण्ड के अनुसार हमें स्वयं को परखना है।

यीशु की यह शिक्षा हमारे सामने एक बड़ी चुनौती रखती है। कई बार हम दूसरों की गलतियों को इस बहाने उजागर करते हैं कि हम उनकी आत्मिक भलाई चाहते हैं। लेकिन यदि हमने पहले अपने ही पापों के प्रति ईमानदारी और कठोरता नहीं दिखाई, तो वह केवल पाखण्ड है! हम अक्सर इस झूठे विचार का शिकार हो जाते हैं कि यदि मैं तुम्हारी गलती पकड़ लूँ और तुम्हें सुधार दूँ, तो शायद मुझे अपने पापों से निपटने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। दूसरों की दशा पर बात करना अक्सर अपने हृदय की सच्चाई से सामना करने से आसान लगता है।

यदि हम वास्तव में दूसरों की सहायता करना चाहते हैं, तो पहले हमें अपने हृदय की गम्भीर अवस्था को पहचानना होगा—जैसा कि रॉबर्ट मुरे म’शेन ने कहा था: “सभी पापों के बीज मेरे हृदय में हैं।”[1] जब हम यह सच्चाई स्वीकार कर लेते हैं और उस पर विश्वास करते हैं, तब जब हम दूसरों की ओर जाते हैं, तो हम नम्रता और प्रेम के निम्न स्तर पर खड़े होते हैं, न कि अहंकार और पूर्वानुमान के ऊँचे स्तर पर। इन दोनों दृष्टिकोणों के बीच का अन्तर सम्पूर्ण जीवन का अन्तर है।

यहूदा 20-25

◊ पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: यहेजकेल 16–17; यूहन्ना 11:28-57


[1] एण्ड्रू बोनार, मेमोयर ऐण्ड रिमेंस ऑफ रॉबर्ट मुरे म’शेन (बैनर ऑफ ट्रुथ, 1995) में उद्धृत, पृ. 153.

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