19 जनवरी : कोई दूसरा नाम है ही नहीं

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19 जनवरी : कोई दूसरा नाम है ही नहीं
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“किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सकें।”  प्रेरितों के काम 4:12

शिकागो के बाहरी इलाके में स्थित नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी  के परिसर के पास बहाय धर्म द्वारा निर्मित एक विशाल मन्दिर है। वह एक भव्य भवन है जिसमें नौ बरामदे हैं, जो नौ प्रमुख विश्व धर्मों में से प्रत्येक के लिए हैं। ये सभी बरामदे एक मुख्य सभागार की ओर ले जाते हैं। इसकी वास्तुकला का उद्देश्य “सत्य” तक पहुँचने के कई मार्गों को दर्शाना है, क्योंकि बहाय लोगों का मानना है कि सत्य को किसी एक मत में, व्यक्ति में या इकाई में नहीं पाया जा सकता।

यह मानसिकता उस सांस्कृतिक परिवेश से बहुत अलग नहीं है, जिसमें प्रेरित पौलुस रहता था। रोमी समाज बहुत खुले विचारों वाला, कई तरीकों से सोचने के लिए बहुत इच्छुक और सभी प्रकार के धर्मों को अपनाने के लिए तैयार था। सच में, रोम ने अपने देवालयों में मूर्तियों और देवी-देवताओं का एक विशाल संग्रह रखा हुआ था, और यह मान्यता रखता था कि सत्य तक पहुँचने के एक से अधिक मार्ग हैं।

तो फिर, ऐसी बहुवादी, खुले विचारों वाली, बहु-ईश्वरवादी संस्कृति मसीहियों को कोलोसियम (रोमी काल का एक बड़ा कलागृह) में शेरों के सामने भोजन के तौर पर कैसे परोस सकती थी? सम्राट नीरो ने विश्वासियों पर लक्ष्य क्यों साधा, और यहाँ तक कि अपने समारोहों में प्रकाश के लिए उनके शरीरों को मानव मशालों के रूप में उपयोग क्यों किया?

इसका उत्तर एक साधारण तथ्य में निहित है कि रोमी संस्कृति मसीहियत को न तो सहन कर सकती थी  और न ही सहन करती थी,  क्योंकि मसीही लोग मसीह को मनगढ़ंत देवताओं में सम्मिलित करने के लिए तैयार नहीं थे। इसके विपरीत, वे इस सत्य पर अटल रहे कि यीशु के अतिरिक्त किसी अन्य नाम में उद्धार नहीं है, जिस प्रकार पतरस और यूहन्ना ने उसी यहूदी महासभा से साहसपूर्वक यह कहा था जिसने प्रभु यीशु को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई थी। पहली सदी की रोमी संस्कृति में जैसे ही लोग इस विश्वास को स्वीकार करते, वैसे ही उनका तिरस्कार किया जाता, उनका ठट्ठा उड़ाया जाता और कभी-कभी तो उन्हें मृत्युदण्ड भी दिया जाता था।

जो लोग बहुदेववाद के दृष्टिकोण को अस्वीकार कर देते हैं कि सभी मार्ग समान रूप से मान्य हैं, उनको वह सह नहीं सकता। वास्तव में, वह प्रायः उन लोगों के प्रति निर्दयतापूर्वक अत्याचारी हो जाता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि लगभग 2,000 साल बाद भी हम ऐसे परिवेश में जी रहे हैं जो रोमी साम्राज्य से ज्यादा अलग नहीं है, यद्यपि इतना तो है कि इसके सताव के तरीके कम क्रूर हैं। बाइबल पर आधारित मसीहियत, जिसका मसीह महिमा में लौटेगा, और अचूक बाइबल, और त्रिएक परमेश्वरत्व, एक बहुदेववादी संसार के लिए घिनौनी बातें हैं।

हमारे आस-पास का संसार भले ही जो भी मानता हो, यीशु ऐसा नहीं है जिसे अन्य झूठे देवी-देवताओं या धार्मिक मूर्तियों के बगल में कोई स्थान दिया जाए। वह सत्य की ओर ले जाने वाले एक और बरामदे से कहीं बढ़कर है। जैसे पलिश्ती देवता दागोन, यहोवा के सन्दूक के सामने गिर कर टूट गया था (1 शमूएल 5:1-4), वैसे ही बाकी सब भी उसके सामने व्यर्थ ठहरेंगे। इस तरह का सन्देश लोकप्रिय नहीं है, किन्तु यह सच है और अद्‌भुत है, क्योंकि यदि कोई क्रूस पर चढ़ाया गया उद्धारकर्ता नहीं होता तो अनन्त जीवन का कोई मार्ग ही नहीं होता, क्योंकि बाकी सभी रास्ते केवल मृत्यु की ओर ले जाते हैं। एक दिन बुद्ध, मुहम्मद और प्रत्येक झूठा नबी परमेश्वर पिता की महिमा के निमित्त यीशु के चरणों में झुकेगा और यह घोषणा करेगा कि वह प्रभु है। जब ​​तक वह दिन नहीं आता, तब तक सत्य को थामे रहिए और लोगों को उस एक अनोखे व्यक्ति के बारे में बताने का प्रयास करते रहिए, जो वह  मार्ग, वह  सत्य और वह  जीवन है जिसकी हम सभी को आवश्यकता है (यूहन्ना 14:6)। वे सब मसीही ही थे, जिन्होंने यूहन्ना और पतरस के हार मानने या चुप रहने से इनकार कर देने के उदाहरण का अनुसरण किया, जिसके कारण रोमी समाज बदल गया; परमेश्वर के अनुग्रह से हम भी उनके पदचिह्नों पर चलते हुए आज संसार को बदल सकते हैं।

प्रेरितों के काम 4:1-22

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