“पर यह बात उन की समझ में नहीं आई, और वे उससे पूछने से डरते थे।” मरकुस 9:32
कल्पना कीजिए एक छात्रा कक्षा में बैठी हुई है, बोर्ड पर लिखे एक सूत्र को घूर रही है। उस सूत्र के चिह्न उसके लिए पूरी तरह से अर्थहीन हैं, लेकिन वह समझने के उद्देश्य से प्रश्न पूछने के लिए हाथ उठाने से डर रही है। हममें से कई लोगों ने शायद ऐसा अनुभव किया होगा या ऐसी किसी स्थिति में फँस गए होंगे, जहाँ एक ओर हमें यह डर था कि कहीं हम मूर्ख न समझे जाएँ या उत्तर हमें ऐसी दिशा में न ले जाए जहाँ हम नहीं जाना चाहते, और दूसरी ओर हम यह जानने थे कि यदि हमने नहीं पूछा, तो हम इस उलझन में फँसे रहेंगे।
यद्यपि यीशु के शिष्य यीशु के साथ रहते थे, उसके उपदेश सुनते थे, उसकी शिक्षाएँ ग्रहण करते थे, और उसके अद्भुत कार्यों के साक्षी बनते थे, फिर भी वे उसके सेवाकार्य की पूरी तस्वीर को समझने में संघर्ष करते रहे। यीशु ने कई बार बहुत स्पष्ट रूप से बताया कि उसके साथ क्या होने वाला था—उससे विश्वासघात, मृत्यु, और पुनरुत्थान। फिर भी शिष्य सबसे कठिन स्थिति में थे: “वे इस बात को समझ न सके और उससे पूछने से डरते थे।”
पतरस, याकूब, और यूहन्ना ने अभी-अभी यीशु का रूपान्तरण देखा था (मरकुस 9:2-8)। वे जानते थे कि वह परमेश्वर का पुत्र है। फिर भी शिष्यों में यीशु को मसीह मानने की जो गम्भीरता थी, वह इस समझ से मेल नहीं खाती थी कि वास्तव में उसके मसीह होने का क्या अर्थ था। मसीह के प्रति उनकी धारणा धुंधली और अधूरी थी, जिससे उनके भीतर भ्रम और भय उत्पन्न हुआ। शायद उन्होंने यीशु से और स्पष्टीकरण इसलिए नहीं माँगा क्योंकि वे अपनी अज्ञानता को स्वीकार नहीं करना चाहते थे; या फिर इसलिए, क्योंकि वे उन बातों के परिणामों का सामना करने के लिए तैयार नहीं थे, जो यीशु उन्हें बता रहा था—न तो उसके स्वयं के लिए (पद 30-31) और न ही उनके लिए (8:34-35)।
यहाँ तक कि यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान के बाद भी इम्माऊस के मार्ग पर दो शिष्यों को यीशु ने पूरी बाइबल के घटनाक्रमों के द्वारा फिर से सब कुछ समझाया ताकि वे उसके दुखों को समझ जाते और इन बातों का अर्थ समझ पाते (लूका 24:26-27)। यीशु के स्वर्गारोहण के ठीक पहले तक भी शिष्य मसीह के राज्य के स्वरूप को लेकर असमंजस में थे। इस बार उन्होंने यीशु से प्रश्न पूछा और यीशु ने उन्हें यह नहीं कहा, फिर वही सवाल? “तुम एक ही सवाल कितनी बार पूछोगे?” बल्कि उसने नम्रता और कृपा से समझाया कि उसका राज्य यरूशलेम के मन्दिर की पुनः स्थापना से नहीं आएगा, बल्कि प्रत्येक शिष्य में होने वाले पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा फैलेगा (प्रेरितों 1:8)।
शायद आप स्वयं को भी इन शिष्यों के स्थान पर पाते हैं, जहाँ परमेश्वर के वचन को पूरी तरह समझना आपको कठिन लग रहा है, या आपने जो थोड़ा सा समझा है, उसके निहितार्थों से आपको डर लग रहा है। लेकिन यह डर का विषय नहीं है। यह कितना अच्छा है कि यीशु एक कोमल और धैर्यवान शिक्षक है—जैसे वह अपने शिष्यों के साथ धैर्य रखता था, वैसे ही वह हमारे साथ भी धैर्य रखता है। और यह भी कितनी अच्छी बात है कि पवित्र आत्मा आपके भीतर निवास करता है और आपको वही सब करने का सामर्थ्य देता है जिसके लिए प्रभु ने आपको बुलाया है (यहेजकेल 36:26-27; गलातियों 5:16)। इसलिए आज यदि आपको बुद्धि और समझ की कमी महसूस हो रही हो, तो बस परमेश्वर से माँगें—“जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है” (याकूब 1:5)।
1 कुरिन्थियों 2:1-16
पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: 1 शमूएल 13–14; इफिसियों 6 ◊