“यूहन्ना की ओर से आसिया की सात कलीसियाओं के नाम : उसकी ओर से जो है और जो था और जो आने वाला है; और उन सात आत्माओं की ओर से जो उसके सिंहासन के सामने हैं, और यीशु मसीह की ओर से जो विश्वासयोग्य साक्षी और मरे हुओं में से जी उठने वालों में पहलौठा और पृथ्वी के राजाओं का हाकिम है, तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे।” प्रकाशितवाक्य 1:4-5
जब आपका मसीही विश्वास और आपके जीवन की परिस्थितियाँ दो अलग-अलग सच्चाइयों की घोषणा करती हुई प्रतीत होती हों, तब आप क्या करेंगे?
यही वह पहेली थी जिसका सामना प्रकाशितवाक्य की पुस्तक के पहले पाठक कर रहे थे। हमारे पवित्रशास्त्र की अन्तिम पुस्तक हमें भ्रमित करने के लिए नहीं परन्तु आशीषित करने के लिए लिखी गई थी (प्रकाशितवाक्य 1:3)। हमें इसे पहेलियों के संग्रह या किसी ईश्वर-विज्ञानीय रूबिक्स क्यूब के खेल के रूप में नहीं लेना चाहिए। इसके विपरीत, हमें यह समझना चाहिए कि यूहन्ना पाठकों को एक ऐतिहासिक सन्दर्भ में लिख रहा था। वह पहली सदी के उन विश्वासियों को लिख रहा था, जो अपने समय के हाकिमों द्वारा प्रताड़ित किए और सताए जा रहे थे, जिससे कि उन्हें आशा और आश्वासन दिया जा सके।
सुसमाचार का प्रचार किया जा रहा था और परमेश्वर के लोगों को पूरी तरह से भरोसा था कि जिस प्रकार यीशु गया था, उसी प्रकार वह वापस भी आएगा। उनका मानना था कि स्वर्गारोहित प्रभु और राजा के रूप में यीशु का सभी परिस्थितियों पर पूरी तरह से नियन्त्रण था और उसकी इच्छा पूरी पृथ्वी पर स्थापित हो रही थी। यही उनका विश्वास था। किन्तु जब वे अपनी परिस्थितियों को देखते, तो वे उनके उस विश्वास के अनुरूप नहीं लगती थीं। जो बातें वे एक दूसरे से कह रहे थे और अपने मित्रों और पड़ोसियों को बता रहे थे, उनमें से कोई भी बात सच नहीं लगती थी। ठट्ठा उड़ाने वाले बहुत बढ़ गए थे। प्रेरित पतरस ने तो विश्वासियों को पहले ही यह चेतावनी दे दी थी कि “पहले यह जान लो कि अन्तिम दिनों में हँसी ठट्ठा करने वाले आएँगे और कहेंगे, ‘उसके आने की प्रतिज्ञा कहाँ गई? क्योंकि जब से बापदादे सो गए हैं, सब कुछ वैसा ही है जैसा सृष्टि के आरम्भ से था’” (2 पतरस 3:3-4)।
जहाँ एक ओर कलीसिया छोटी और संकटग्रस्त थी, वहीं दूसरी ओर मनुष्य द्वारा स्थापित साम्राज्य ताकत और महत्त्व में बढ़ रहे थे। सताव अपनी तीव्रता में बढ़ रहा था और निस्सन्देह वह दुष्ट आया और इन पीड़ित मसीहियों को यह संकेत दिया कि वे एक बड़े भ्रम में फँसे हुए हैं। उनके लिए यह आवश्यक था कि यीशु आए और उनके समक्ष अपना पक्ष रखे ताकि उनकी परेशानियाँ उन्हें हतोत्साहित, भ्रमित या अभिभूत न करें। उन्हें केवल इतना समझने की आवश्यकता थी कि यीशु अभी भी जयवन्त प्रभु और राजा था। मृतकों में से उसका पुनरुत्थान उसके अधिकार और उसकी सत्यनिष्ठा की घोषणा कर रहा था। उसके लोगों के जीवन और भविष्य के लिए उस पर भरोसा किया जा सकता था।
एक ऐसे संसार में, जो परमेश्वर के लोगों पर निरन्तर अत्याचार करता रहता है, प्रकाशितवाक्य की पुस्तक ठीक वही पुस्तक है जिसकी आज कलीसिया को आवश्यकता है। जबकि आर्थिक रूप से निराशा, भौतिक रूप से अभाव, और नैतिकता और व्यक्तिगत पहचान की समस्याएँ पुरुषों और स्त्रियों के मनों को उलझाने की घुड़की दे रहे होते हैं, तब यूहन्ना का सन्देश हमें स्मरण दिलाता है कि हमारा मसीही विश्वास उन चुनौतियों और प्रश्नों के लिए पर्याप्त है जो हमारे सामने हैं। क्या आपकी परिस्थितियाँ आपको यह बता रही हैं कि शायद आपके विश्वास के बारे में आपकी धारणाएँ गलत हो सकती हैं? इस आश्वासन में विश्राम पाएँ कि यीशु जी उठा है, यीशु राज्य करता है, और अन्ततः, यीशु ही जीतता है।
प्रकाशितवाक्य 1:1-8