12 जुलाई : धन्यवाद देने का बुलावा

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12 जुलाई : धन्यवाद देने का बुलावा
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“हे सारी पृथ्वी के लोगो, यहोवा का जयजयकार करो! . . . उसके फाटकों से धन्यवाद, और उसके आँगनों में स्तुति करते हुए प्रवेश करो!” भजन 100:1, 4

सौवाँ भजन, जिसमें आराधना का बुलावा दिया गया है, भजन संहिता की पुस्तक का बहुत प्रसिद्ध भजन है। लेकिन इससे इतना अधिक परिचित होने के कारण हो सकता है कि हम इसे बहुत हल्के में लेने लग जाएँ। विभिन्न कारणों की वजह से ऐसे अंशों का अध्ययन करना आसान होता है, जिससे हम कम परिचित होते हैं, क्योंकि तब हम अध्ययन में आलसी नहीं होते। हम यह मानने की गलती नहीं करते कि हम उसे पहले से ही जानते हैं।

हमें कभी भी धन्यवाद के बुलावे को इतना हल्के में नहीं लेना चाहिए कि हम इसे केवल एक आम बात समझ कर अनदेखा कर दें। यह भजन हमें कुछ करने के लिए प्रेरित करता है! परमेश्वर के लोग होने के नाते हमें आनन्द से भरी आराधना और धन्यवाद से भरी स्तुति करने के लिए बुलाया गया है।

“जयजयकार करो” का अर्थ ऊर्जावान और आनन्द से भरी आराधना का बुलावा है। ऐसी स्तुति को किसी मजबूरी के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए, मानो हमने कुछ अप्रिय चीज खा ली हो। इसके बजाय, यह हमारे जीवन में परमेश्वर के काम का प्रत्युत्तर होना चाहिए। सी. एस. लुईस इस बारे में इस प्रकार कहते हैं कि हम “आनन्द से चौंक” जाएँ। आराधना का अवसर सच्चे विश्वासियों की आत्मा को उन्नत करता है—और कोई भी इस प्रोत्साहन से बाहर नहीं है। परमेश्वर ने “सारी पृथ्वी” को अपनी महिमा के लिए बनाया है।

यह बुलावा हमें “उसके आँगनों में स्तुति करते हुए प्रवेश” करने का आमन्त्रण भी देता है। लंदन में बकिंघम पैलेस के बाहर एक सामान्य व्यक्ति के अनुभव पर विचार करें, जहाँ आप बस अपनी नाक उसके बाड़ में घुसाकर दूर से शाही परिवार की एक झलक पाने की उम्मीद करते हैं। फाटकों को जानबूझकर बन्द किया गया है ताकि शाही परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। लेकिन हमारे परमेश्वर पिता के साथ हमारा अनुभव ऐसा नहीं है। यीशु की मृत्यु ने मन्दिर के परदे को दो टुकड़ों में फाड़ दिया (मत्ती 27:51) और हमारे लिए जीने का एक नया रास्ता खोला। यीशु के द्वारा हमें पिता तक पहुँच प्राप्त हुई है और फाटक अब स्वागत के लिए खुले पड़े हैं।

हमारी आनन्द से भरी आराधना और धन्यवाद से भरी स्तुति हमारे हालात या भावनाओं से जुड़ी नहीं होनी चाहिए। धन्यवाद की असली नींव यह ज्ञान है कि हमारा प्रभु ही परमेश्वर है और उसने हमें अपने आँगन में आमन्त्रित किया है, ताकि हम उसके सिंहासन के चारों ओर उसकी प्रजा के तौर पर और साथ ही उसकी सन्तान के तौर पर भी खड़े हो सकें। इसे पहचानने का अर्थ यह है कि हम एक दृढ़ आधार पर खड़े हैं ताकि हम सभी भजनकार के साथ कह सकें:

उसने मुझे सत्यानाश के गड़हे

और दलदल की कीच में से उबारा,

और मुझ को चट्टान पर खड़ा करके मेरे पैरों को दृढ़ किया है।

उसने मुझे एक नया गीत सिखाया

जो हमारे परमेश्‍वर की स्तुति का है।” (भजन 40:2-3)

एक दिन आप उसके आँगनों में खड़े होंगे। तब तक प्रत्येक रविवार आप अपनी स्थानीय कलीसिया में—जो उस स्वर्गिक सिंहासन कक्ष का दूतावास है—खड़े हो सकते हैं और भविष्य के उस दिन की प्रत्याशा में प्रभु के लिए आनन्द से गा सकते हैं।

भजन 100

◊ पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: भजन 4– 6; प्रेरितों 9:23-43

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