“यदि भला काम करके दुख उठाते हो और धीरज धरते हो, तो यह परमेश्वर को भाता है। और तुम इसी के लिए बुलाए भी गए हो, क्योंकि मसीह भी तुम्हारे लिए दुख उठाकर तुम्हें एक आदर्श दे गया है कि तुम भी उसके पद–चिह्नों पर चलो।” 1 पतरस 2:20-21
सी.एच. स्पर्जन ने एक बार लन्दन में अपने मण्डली से कहा, “मेरे प्रिय मित्र, यदि आप यह नियम बना लें कि कोई भी आपको अपमानित करे या आपके साथ अनादर से पेश आए और आप उसे बिना बदला दिए नहीं छोड़ेंगे, तो आपको प्रतिदिन भोर को परमेश्वर से प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं कि वह आपको उस संकल्प को निभाने में सहायता करे।”[1] उनका भाव यह था: अपने सम्मान की रक्षा करना और जिन्होंने हमें चोट पहुँचाई है उनसे बदला लेना हमारे स्वभाव का हिस्सा है। परन्तु दुख सहना और न्याय का कार्य परमेश्वर पर छोड़ना हमारे प्राकृतिक स्वभाव के विरुद्ध है।
वास्तव में, न्याय करना एक ऐसी ज़िम्मेदारी है, जिसके लिए हम पूर्णतः अयोग्य हैं। जब हम प्रतिघात करते हैं, तो हमें यह नहीं पता होता कि कितनी तीव्रता से करना है; और जब कोई हमें कठोर शब्द कहता है, तो हम अक्सर उससे कहीं अधिक कटुता से उत्तर देते हैं। भीतर-ही-भीतर हम यह सोचते हैं कि हम घृणा को घृणा से हरा देंगे, परन्तु ऐसा करके तो हम बुराई को और बढ़ा देते हैं। निश्चित रूप से, बुराई का दण्ड मिलना चाहिए—और वह मिलेगा भी। परन्तु यह दण्ड देना हमारा काम नहीं है।
केवल परमेश्वर ही न्याय करने और दण्ड देने में सिद्ध और सम्पूर्ण है। वही हर अन्याय को ठीक करेगा। एक सिंहासन है जो इस संसार के किसी भी न्याय-आसन से ऊँचा है, और एक दिन उसी सिंहासन पर सभी भ्रष्ट निर्णय, गलत न्याय और मानव न्याय की विफलताएँ ठीक की जाएँगी।
यह सच्चाई हमें प्रतिशोध की आड़ लेने की अनुमति नहीं देती। हमें अपने शत्रुओं के लिए कुछ और नहीं, केवल उनका उद्धार ही चाहना चाहिए। जिन्होंने हमारा तिरस्कार किया है, हमारे विरुद्ध कार्य किया है, या हमें नीचा दिखाया है—उनके प्रति हमारी जिम्मेदारी स्पष्ट है: हमें उनके लिए आशीष की कामना करनी है और उनके लिए प्रार्थना करनी है (मत्ती 5:44; लूका 6:28)।
यीशु हमारा आदर्श है: “वह गाली सुनकर गाली नहीं देता था, और दुख उठाकर किसी को भी धमकी नहीं देता था, पर अपने आप को सच्चे न्यायी के हाथ में सौंपता था” (1 पतरस 2:23)। आपके साथ उससे अधिक अन्याय नहीं होगा जितना यीशु के साथ हुआ, इसलिए हर परिस्थिति में आपको वैसा ही प्रत्युत्तर देना है जैसा उसने दिया।
आपको किस परिस्थितियों में और किन लोगों के साथ अधिक कठोरता से प्रतिघात करने का प्रलोभन होता है, बजाय इसके कि आप बुराई का प्रत्युत्तर भलाई से दें? उन लोगों के साथ भलाई करने में परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए तीन बातें आपकी सहायता करेंगी।
पहला, अपनी दृष्टि यीशु पर स्थिर रखें। जब आप मसीह को क्रूस पर यह कहते देखते हैं, “हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहे हैं” (लूका 23:34), तो उसके बाद प्रतिशोध की भावना को बनाए रखना अत्यन्त कठिन हो जाता है।
दूसरा, परमेश्वर के अनुग्रह पर विस्मित हो जाएँ। इस बात को याद रखें कि आप स्वाभाविक रूप में कौन थे और अनुग्रह से आप क्या बन गए हैं। जो व्यक्ति सचमुच परमेश्वर के अनुग्रह से विस्मित होता है, वह दूसरों के लिए बुरा नहीं चाहता।
तीसरा, अनन्तकाल पर और परमेश्वर के ऊँचे सिंहासन पर ध्यान केन्द्रित करें। आपकी वर्तमान स्थिति सम्पूर्ण चित्र नहीं है। आपको इस संसार में ही न्याय देखने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए परमेश्वर से यह प्रार्थना करें कि वह आपको भलाई करने और सहनशील बने रहने में सहायता दे, चाहे आपके साथ बुराई ही क्यों न हो रही हो। वह आपको वही करने में सहायता देने को तत्पर है, जो उसके वचन के अनुसार सही है।
तीतुस 2:11-14; 3:1-7
पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: यहोशू 4– 6; लूका 15:1-10 ◊
[1] “ओवरकम इवल विद गुड,” द मैट्रोपोलिटन टैबरनैकल पुलपिट 22, क्रं. 1317, पृ. 556.