21 दिसम्बर : अधीनता और दीनता

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21 दिसम्बर : अधीनता और दीनता
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“सदा सब बातों के लिए हमारे प्रभु यीशु मसीह के नाम से परमेश्‍वर पिता का धन्यवाद करते रहो। मसीह के भय से एक दूसरे के अधीन रहो।इफिसियों 5:20-21

जब लोग एक ऑर्केस्ट्रा का हिस्सा बनते हैं, तो वे अपनी व्यक्तिगत पहचान का कुछ अंश पीछे छोड़ देते हैं। एक सिम्फनी एक एकल प्रस्तुति नहीं होती। यद्यपि संगीतकार अपनी पहचान नहीं खोते, फिर भी वे स्वयं को उस समूह में समाहित कर देते हैं। एक समूह का सामूहिक स्वरूप किसी एक व्यक्ति की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, और वह सामूहिक रूप से ऐसा कुछ उत्पन्न करता है जिसे कोई एकल संगीतज्ञ कभी उत्पन्न नहीं कर सकता।

पौलुस भी कुछ ऐसा ही विचार व्यक्त करता है जब वह लिखता है: “एक दूसरे के अधीन रहो”—हालाँकि यहाँ समूह कोई ऑर्केस्ट्रा नहीं, बल्कि कलीसिया है।

हालाँकि अधीनता जैसे शब्दों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, तौभी हमें यह स्वीकार करना होगा कि बाइबल इसे सीधा-सीधा और बार-बार उपयोग करती है। पौलुस के लिए कलीसिया की एकता और स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करते हैं कि मसीही विश्वासी अधीनता को सही रूप से समझें और इसे एक-दूसरे के प्रति व्यवहार में लाएँ।

विश्वासियों के परस्पर अधीन होने को गम्भीरता से लेना कैसा दिखता है? आंशिक रूप से इसका अर्थ यह है कि हम में से हर एक यह समझे कि हमारे पास अपने आप पर गर्व करने या किसी अन्य से श्रेष्ठ समझने का कोई कारण नहीं है। दूसरे शब्दों में, हम नम्रता धारण करके परस्पर अधीनता को प्रदर्शित करते हैं। यह कार्य हमारे अहंकार के कारण कठिन अवश्य होता है—जो हम सभी के लिए एक बड़ी चुनौती है, और जो उस संस्कृति में और अधिक तीव्र हो जाती है जो हमें लगातार अपने आपको सबसे आगे रखने के लिए उकसाती है।

परन्तु कलीसिया को ऐसी संस्कृति में भी अलग दिखना चाहिए। परमेश्वर की प्रजा के रूप में, हम जानते हैं कि परमेश्वर की सहायता के बिना तो हम सुबह को उठ भी नहीं सकते। सत्य यही है कि हम पूरी तरह से उस पर निर्भर हैं (प्रेरितों 17:24-25)। सुसमाचार ही सच्ची नम्रता की कुंजी है, क्योंकि यह हमें याद दिलाता है कि परमेश्वर ने यीशु में हमारे लिए वह कार्य किया है जिसकी हमें सबसे अधिक आवश्यकता थी और जिसे हम स्वयं कभी कर ही नहीं सकते थे।

सच्ची नम्रता आत्म-निन्दा नहीं है; यह स्वयं से स्वतन्त्रता है। यह स्वयं को भूलकर भी स्वयं होने की स्वतन्त्रता है। यह वह स्वतन्त्रता है जो इस सच्चाई से आती है कि हम अपनी दुनिया का केन्द्र नहीं हैं। जब आप इस प्रकार की नम्रता को ध्यान में रखते हैं, तो आप दूसरों के अधीन होने के लिए तैयार होते हैं—अपनी सम्पूर्णता को लेकर, दूसरों के हित को प्राथमिकता देते हुए, दूसरों के मार्गदर्शन में सेवा करने को तत्पर होते हैं। तब आपकी कलीसिया कुछ सुन्दर उत्पन्न कर सकती है—एक ऐसी मण्डली जो सुसमाचार को प्रकट करती है। इसलिए इस प्रतीक्षा में न रहें कि आपकी कलीसिया के अन्य लोग पहले ऐसे मसीही बनें। आज ही, नम्रता से संकल्प लें कि आप वह मसीही होंगे।

इफिसियों  4:1-16

◊ पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: नहेम्याह 7–9; लूका 20:1-26

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