“एक मनुष्य यीशु के पास आया और उससे कहा, ‘हे गुरु, मैं कौन सा भला काम करूँ कि अनन्त जीवन पाऊँ?’ … यीशु ने उससे कहा, ‘यदि तू सिद्ध होना चाहता है तो जा, अपना माल बेचकर कंगालों को दे, और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा; और आकर मेरे पीछे हो ले।’ परन्तु वह जवान यह बात सुन उदास होकर चला गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।” मत्ती 19:16, 21-22
धार्मिक नियमों और विधानों का पालन करके स्वर्ग में प्रवेश पाने का प्रयास न तो मन को शान्ति देता है, न सुरक्षा की भावना उत्पन्न करता है, और न ही हमें पापों की क्षमा का आश्वासन देता है। और न ही यह हमें अनन्त जीवन दिलाता है।
इसी क्षमा के आश्वासन की कमी ने एक युवा शासक को यीशु के पास जाने और साहसपूर्वक यह प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित किया। वह धनी था; लूका हमें यह भी बताता है कि वह एक प्रधान था—शक्तिशाली और प्रभावशाली (लूका 18:18)—ऐसा व्यक्ति जिसे संसार आदर की दृष्टि से देखता है और धन्य मानता है। इसके अलावा, वह परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने के प्रति गम्भीर था (मत्ती 19:20)। हमें यह सोचने के लिए प्रेरित किया जाता है, “यदि कोई अनन्त जीवन प्राप्त कर सकता है, तो निश्चय ही यह व्यक्ति कर सकता है।” इसलिए इस व्यक्ति को शायद यह उम्मीद थी कि यीशु उसकी धार्मिकता की सराहना करेगा और उसे स्वर्गिक प्रतिफल का आश्वासन देगा।
लेकिन यीशु ने कोमलता से उसे यह दिखाया कि वह परमेश्वर की व्यवस्था का पूर्णतः पालन नहीं कर रहा था। वास्तव में, इस युवक ने सबसे पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण आज्ञा को तोड़ा था: उसने अपने पूरे हृदय, आत्मा, शक्ति और बुद्धि से परमेश्वर से प्रेम करने के बजाय अपने धन को अधिक प्रिय माना था। यही कारण था कि जब यीशु ने उसे अपने धन को छोड़कर उनका अनुसरण करने के लिए कहा, तो वह दुखी होकर चला गया। यीशु ने इस व्यक्ति को दिखाया कि परमेश्वर की आज्ञाएँ कोई सीढ़ी नहीं हैं, जिन्हें चढ़कर हम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि वे एक दर्पण हैं, जो हमारी वास्तविक आत्मिक स्थिति को प्रकट करती हैं।
इस धनी युवक की समस्या उसके हृदय की थी। यही हमारी भी समस्या है। बाइबल कहती है कि हम परमेश्वर से स्वाभाविक रूप से विमुख हैं और स्वयं को सही सम्बन्ध में लाने में असमर्थ हैं। हमने परमेश्वर से पूरे हृदय से प्रेम नहीं किया है, क्योंकि हमने उससे अधिक अन्य चीजों से प्रेम किया है।
परमेश्वर की आज्ञाओं को पूरी तरह मानने और उससे प्रेम करने में इस युवक की असमर्थता हमारी भी असमर्थता है। कोई भी मनुष्य न तो ऐसा कर पाया है, न कर सकता है, और न ही कभी कर पाएगा कि वह परमेश्वर से पूरी तरह से प्रेम करे और उसकी सभी आज्ञाओं का सिद्ध रूप में पालन करे—सिवाय स्वयं यीशु के। और यही हमारे लिए शुभ समाचार है! हमारा उद्धार हमारे कार्यों पर निर्भर नहीं है। बल्कि, शान्ति, सुरक्षा, क्षमा, और परमेश्वर के साथ सही सम्बन्ध हमें तब प्राप्त होता है, जब हम पूरी तरह उसकी दया पर निर्भर होते हैं—जब हम उद्धार के उसके मुफ्त उपहार को स्वीकार करते हैं और जब हम यीशु के क्रूस पर किए गए बलिदान को नम्रता और कृतज्ञता के साथ ग्रहण करते हैं।
उस धनी युवक को दुखी होकर यीशु के पास से चले जाने की आवश्यकता नहीं थी। वह अपने अहंकार और आत्मनिर्भरता को त्याग सकता था। अपनी धार्मिकता और सम्पत्ति को थामे रहने के कारण निरन्तर अशान्ति में रहने के बजाय वह यीशु को पहले स्थान पर रखने के आनन्द को अनुभव कर सकता था। आत्मनिर्भरता सदैव व्यर्थ सिद्ध होगी और जैसा उसके साथ हुआ था वैसे ही हमें भी चिन्ता और असुरक्षा में डाल देगी। लेकिन यदि हम बालकों के समान विश्वास और भरोसे के साथ अपने उद्धारकर्ता के पास जाएँ, तो हम सच्ची शान्ति और अनन्त जीवन का आश्वासन प्राप्त कर सकते हैं।
इसलिए अपने हृदय में यीशु को सिंहासन पर बैठाएँ और आप जो कुछ हैं तथा आपके पास जो कुछ है, उसे उसकी सेवा में अर्पित करने के लिए तैयार रहें। यीशु के पास खाली हाथ आएँ और उस आनन्द तथा जीवन को प्राप्त करें, जो केवल वही दे सकता है।
मत्ती 19:16-30
पूरे वर्ष में सम्पूर्ण बाइबल पढ़ने के लिए: सपन्याह; कुलुस्सियों 4 ◊