“यूसुफ अपने पिता के घराने समेत मिस्र में रहता रहा, और यूसुफ एक सौ दस वर्ष जीवित रहा…यूसुफ ने अपने भाइयों से कहा, ‘मैं तो मरने पर हूँ; परन्तु…परमेश्वर निश्चय तुम्हारी सुधि लेगा…तुम तेरी हड्डियों को यहाँ से उस देश में ले जाना।’” उत्पत्ति 50:22, 24-25
यूसुफ के जीवन के बाकी के लगभग 60 वर्षों का सारांश इस वाक्य में दिया गया है: “यूसुफ अपने पिता के घराने समेत मिस्र में रहता रहा।” उसके जीवन का यह समय शायद उसके प्रारम्भिक जीवन की नाटकीय घटनाओं की तुलना में कहीं अधिक शान्तिपूर्ण था। लेकिन निश्चित रूप से ये 60 साल निरर्थक नहीं थे। यूसुफ के जीवन के इस काल पर विचार करते हुए हमें यह सोचने का अवसर मिलता है: हम किस लिए जी रहे हैं? जो समय परमेश्वर ने हमें दिया है, हम उसे किस तरह से उपयोग कर रहे हैं?
यह बहुत आसान है कि हम अपना जीवन केवल पार्थिव उद्देश्यों का पीछा करते हुए व्यतीत कर दें, जैसे व्यावसायिक सफलता, वित्तीय स्थिरता, या आरामदायक विलासिता। यह मिथक आकर्षक है: कि जीवन का लक्ष्य केवल अपनी नौकरी में कठिन परिश्रम करना है, ताकि आप अपने आरामदायक जीवन को स्थापित करने के लिए पर्याप्त संसाधन जुटा सकें—यह कि जीवन का उद्देश्य केवल सेवानिवृत्ति की तैयारी करना है। जब विश्वासियों के पास आमतौर पर वित्तीय, भावनात्मक और सामाजिक दृष्टिकोण से पर्याप्त समय होता है, जिसे वे परमेश्वर के राज्य की सेवा में लगा सकते हैं, तब वे अक्सर आराम की बात करने लगते हैं।
यीशु के अनुयायी के रूप में हमें इस तरह नहीं जीना चाहिए जैसे कि यही संसार सब कुछ है। फिर भी हममें से कुछ लोग ईमानदारी से ऐसा नहीं कह सकते, “इस जीवन से बढ़कर भी कुछ है,” क्योंकि हम अपने समय, संसाधन और धन के साथ जो कुछ भी कर रहे हैं, वह यह सन्देश दे रहा है, “बस यही सब कुछ है! इसीलिए मैं प्रति सप्ताह 60 घण्टे काम कर रहा हूँ। यही कारण है कि मैं घर नहीं आता या छुट्टी नहीं लेता। यही कारण है कि पिछले रविवार मैं कलीसिया नहीं गया। यही कारण है कि मैं अपने पड़ोसियों के साथ सुसमाचार साझा करने या सेवा करने के लिए समय नहीं निकालता और जोखिम नहीं उठाता। क्योंकि बस यही सब कुछ है।”
यह एक बात होती है कि हम किसी संघर्ष के बीच एक जीवन्त और अडिग विश्वास कायम रखते हैं; लेकिन यह पूरी तरह से एक नई चुनौती होती है कि हम दैनिक दिनचर्या के बीच एक स्थिर आज्ञाकारिता का जीवन जीते हैं। जीवन को अच्छी तरह से जीने के लिए—विशेषकर जब हम अपने संसाधनों और धरोहर के बारे में बात करते हैं—हमें केवल यह नहीं सोचना चाहिए कि हम जीवन में क्या चाहते हैं, बल्कि हमें यह भी सोचना चाहिए कि हमें जीवन के साथ क्या करना चाहिए। हमें एक स्वर्गिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
यूसुफ के पास अपने जीवन के लिए और उन अन्तिम, शान्तिपूर्ण वर्षों के लिए एक उद्देश्य था। उसकी दृष्टि मिस्र की सीमाओं के पार लगी हुई थी। वह अपने पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर रहा था; बल्कि उसने बड़ी जिम्मेदारी से यह सुनिश्चित किया कि उसके बच्चे और उसके बच्चों के बच्चे मिस्र में बहुत आराम से न बसें, बल्कि वे इतने अस्थिर हो जाएँ ताकि वे एक दिन प्रतिज्ञा किए गए देश में वास्तव में स्थिरता से बस सकें। परमेश्वर ने उसे मिस्र में शान्ति, प्रतिष्ठा और समृद्धि दी थी—वह सब कुछ जिसका हममें से अधिकांश लोग आज के दिन में पीछा करते हैं। फिर भी वह हमेशा मिस्र के पार देखता रहा। वह जानता था कि यह वह स्थान नहीं था, जहाँ पर उसे या परमेश्वर के लोगों को सचमुच बसना था। यह उसका अपना घर नहीं था। हमें भी इस तरह जीना चाहिए कि हम अपने प्रियजनों और अपने दिलों को “एक उत्तम अर्थात् स्वर्गीय देश के अभिलाषी” बनाए रखें (इब्रानियों 11:16)। चाहे आज आपके पास कुछ हो या न हो, यह वर्तमान संसार आपका घर नहीं है। इससे कुछ अधिक और बेहतर आना अभी बाकी है। यह सुनिश्चित कर लें कि आपका समय, संसाधन और धन इस ज्ञान को प्रदर्शित करें।
1 थिस्सलुनीकियों 5:1-11
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